मेरे ब्लॉग के किसी भी लेख को कहीं भी इस्तमाल करने से पहले मुझ से पूछना जरुरी हैं

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September 16, 2015

उस वृद्ध व्यक्ति ने किया अपने को सम्मान देने वाले व्यक्ति का सम्मान .

दो दिन से एक फोटो को सब शेयर   कर रहे हैं जिस मे एक वृद्ध व्यक्ति अखिलेश यादव के पैर छू रहा हैं।  उस व्यक्ति को साहित्यकार होने का कोई पुरूस्कार मिला हैं।  

हिंदी में पुरूस्कार की परम्परा बहुत पुरानी हैं जैसे हमारी संस्कृति मे पैर छूने की।  
अगर किसी को किसी के प्रति कोई ऐसी भावना हैं और उसने पैर छू लिये तो इसमे इतना बाय बावेला क्यों ? 
किसी को सारी जिंदगी कुछ नहीं दिया गया और मरने से पहले उसके काम को सराहना मिली और साथ साथ साथ पुरूस्कार भी और उसने अपने चीफ मिनिस्टर के चरण स्पर्श कर लिये तो क्या आफत आगयी ? 
बुरा तो तब होता अगर अखिलेश के हाथ उनको उठाने के लिये तत्पर ना होते।  

विनम्रता पुरानी पीढ़ी की ताकत थी वो अपने साथ हुए अन्याय के खिलाफ आवाज नहीं उठाते थे लेकिन अपनी सराहना होते ही वो भावनात्मक रूप से किसी के भी पैर छू सकते थे. 

हिंदी ब्लॉग जगत में तो एक पुरूस्कार की घोषणा होते हैं उसके चित्र लिंक और जिसने पुरूस्कार दिया उसकी तारीफ़ से भरे पुलिँदै ना जा ने कितनो ने डाले हैं।  वो सब इस पैर छूने से कहीं ज्यादा भयानक चाटुकारिता थी।  
 आज भी फेस बुक पर गौरव सम्मान के लिंक दिख रहे हैं क्या हैं ये सब वही जो उस वृद्ध व्यक्ति ने किया अपने को सम्मान देने वाले व्यक्ति का सम्मान . 

September 10, 2015

हिंदी को प्यार इसलिये ना करे की वो आप को पॉपुलर कर सकती हैं क्युकी ये सेल्फिशनेस हुई।

हिंदी सम्मलेन हो रहा हैं फेसबुक पर और ब्लॉग पर हिंदी में लिखने वाले परेशान , उन्हे नहीं न्योता गया।  


अरे क्या आप ने  ब्लॉग और फेसबुक पर हिंदी में इसलिये लिखना प्रारंभ किया था की आप हिंदी के स्थापित लेखक और कवि या व्यंगकार कहलाये ? 

जो इतने व्यथित दिख रहे हैं उन सब को सोचना चाहिये की क्या उनके पास हिंदी की कोई प्रमाणित डिग्री हैं जैसे बी ऐ , ऍम ऐ , ऍम फिल , पी एच डी।  अगर हैं तो क्या आप उन संस्थानों से जुड़े हैं जहां साहित्यकार , हिंदी के लेखक , कॉलेज प्रवक्ता इत्यादि जाते हैं ?

लीजिये आप कहेंगे वहाँ सब बेकार की बाते होती हैं , बहुत पॉलिटिक्स हैं और हिंदी को प्यार करने उसमे लिखने के लिये इस सब की क्या जरुरत। 

सही आप हिंदी को प्यार करते हैं , उसमे लिखते हैं लिखिये खुश होइए और साहित्यकार , बुद्धीजीवियों की जुत्तम  पैजार से दूर रहिये।  

और मन में ये भरम तो कभी ना पालिये की आप के हिंदी में लिखने से हिंदी का इतना विस्तार  हुआ हैं नेट पर।  

हिंदी अपने आप में एक सम्पूर्ण भाषा हैं जिसको विस्तार की जरुरत ही नहीं हैं।  आप उसे प्यार करिये और उसके साथ साथ ये भी ध्यान रखिये की कोई भी भाषा हो नेट पर उसका विस्तार केवल और केवल इंग्लिश के कारण हुआ हैं।  

सारे प्रारंभिक टूल्स इंग्लिश में थे जिनकी जानकारी के कारण आलोक , मैथिलि , सिरिल और रवि इत्यादि ने हिंदी में नेट पर लिखना शुरू किया।  बाकी सब धीरे धीरे आते गए , कारवाँ बनता गया। 



हिंदी को प्यार इसलिये ना करे की वो आप को पॉपुलर कर  सकती हैं क्युकी ये सेल्फिशनेस हुई।  

September 04, 2015

कौन किसके बारे में कितना सोचता हैं इसकी इकोनॉमिक्स बहुत काम्प्लेक्स हैं

आज कल तमाम रिफ्यूजी समस्या चर्चा में हैं।  कुछ दिन पहले रवांडा रिफ्यूजी चर्चा मे थे आज कल सीरिया के हैं।  

लोग यूरोप पर थूक रहे हैं क्युकी उन्होने इनलोगो को शरण नहीं दी।  

हमलोगो के आस पास कितने हमारे अपने आर्थिक रूप से कमजोर रिश्तेदार परिवार हैं क्या हम सब उनको आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण अपने घर में ले आते हैं ?

क्या हम सब अपनी आर्थिक क्षमता का आंकलन नहीं करते हैं ?

कितने बांग्ला देशी कितने साल तक हमारे देश में रहे और आज भी हैं क्या उस से देश की इकॉनमी पर कोई असर नहीं पड़ा ? 

यूरोप मे खुद बहुत से ऐसे देश हैं जो इस समय रिसेशन का शिकार हैं तो अगर यूरोप नहीं चाहता की बाहर के लोग आकर उनकी इकॉनमी पर और बोझ डाले तो इसमे क्या गलत हैं ? 

कभी कभी सोचो तो लगता हैं जो लोग इललीगल तरीके   से जीवन यापन करते हैं उन्हे ही दूसरो  से सबसे ज्यादा चाहिये होता हैं 

आज कल जो  स्त्री मेरे ऑफिस में झाड़ू पोछा करती हैं वो एक महिने पहले दिल्ली आयी हैं , इस काम को वो बेहद बेमन से करती हैं।  
कल उससे बात की तो पता लगा गाँव में एक जमीन ली हैं कर्जा उठाया हैं १ लाख का चुकाना हैं।  

मैने कहा इसका मतलब हैं की कम  से कम २० हज़ार रूपए महीने की कमाई हो तो १० हज़ार गाँव भेज कर तुम बाकी दस हज़ार में खुद पति और ३ बच्चो के साथ यहां गुजारा कर सकती हो।  कहने लगी इतना तो नहीं हो सकता।  मुश्किल से १०००० हो पाता हैं जिसमे ३ हज़ार  एक दस साल का उसका लड़का कमाता हैं।  रोज का ४ समय का पूरा भोजन भी नहीं सही मिलता। 

गाँव में ससुर का १० कमरो का मकान हैं ३ बेटो के ३ ३ कमरे।  ३ परिवार साथ रह रहे थे।  दिन में आराम था किसी के घर नहीं जाना होता था।  

यहां शहर के लोग बहुत काम लेते हैं पैसा कम देते हैं। 

अब शहर के लोग कैसे अपना जीवन यापन करते हैं , कैसे अपने बच्चो की ३००० - ८००० रूपए महीने की स्कूल फीस देते हैं इस सब से उनको क्या।  

उनके  बारे में कोई नहीं सोचता।  

कौन किसके बारे में कितना सोचता हैं इसकी इकोनॉमिक्स बहुत काम्प्लेक्स हैं

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