मेरे ब्लॉग के किसी भी लेख को कहीं भी इस्तमाल करने से पहले मुझ से पूछना जरुरी हैं

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December 30, 2015

हैप्पी नई ईयर २०१६ वेलकम

नव वर्ष आने को हैं
कुछ कहेंगे ये हिन्दू नव वर्ष नहीं हैं
कुछ कहेंगे ये अंग्रेजो की देन हैं
यानी साल कितने भी आये जाए
मानसिकता नहीं बदलती 
तो कुछ नहीं बदलता
बचपन से साल के कैलेंडर को
बदलते देखा हैं
समय फिर भी शायद नहीं बदला हैं
हाँ समय भी बदल जाए पर
हम खुद ना बदले तो समझिए
जीवन सार्थक हैं
अब देखिये कितना विरोधाभास हैं
हमारी अपनी सोच मे
कभी कहते हैं मानसकिता बदलो
कभी कहते हैं खुद को मत बदलो
आने वाले साल में
हर किसी का जीवन भय मुक्त हो
हर किसी को वो सब मिल जाए
जिसकी उसको कामना हो
बस इसी कामना के साथ
हैप्पी नई ईयर २०१६
वेलकम

December 29, 2015

फ्री बेसिकस

मार्क ज़ुकेरबर्ग को समझ नहीं आ रहा की इंडिया उनकी जी हुज़ूरी क्यों नहीं कर रहा हैं , उनके आगे बिछ क्यों नहीं रहा हैं। वो तो अपनी बेटी के लिये एक अच्छी दुनिया बसाना चाहते हैं इस लिये इंडिया में फ्री बेसिकस देना चाहते क्युकी ये गरीब गाँव के लोगो , किसानो के लिये सही हैं।
बीजू पटनायक ने सही कहा की किसी के लिये क्या सही हैं इसका फैसला कर के हम उस से फैसला करने का अधिकार भी छीन लेते हैं।
जो कंपनी यूजर को उसका नाम चुनने का अधिकार नहीं दे रही
जबरदस्ती सरनेम को लिखने के बाध्य कर रही हैं
नाम बदलने के लिये स्त्रियों से उनका शादी का प्रूफ मांग रही हैं
वो बराबरी की बात कर रही हैं
कमाल हैं
“If you dictate what the poor should get, you take away their rights to choose what they think is best for them.” Naveen Patnaik
Perfect way of telling ‪#‎markzuckerberg‬ that by offering free basics as a tool to access internet in remote india they are just luring a class into a vortex of facebook and its associate . Do they really need it , have they asked for it ?
Mark Zuckerberg wants us to be GRATEFUL for the services he is providing in our country . Read the article to understand how he is wanting to spread goodness in the world so that HIS DAUGHTER has a better place to live .
Why not start a school providing free basic education to millions of girls who have to work in domestic sector india so that they can study . Why not open a college in the remote villages for girls to study computer science .
Why not open offices in india remote villages so that girls get work .
EVERY ONE THINKS JUST ABOUT THEIR DAUGHTERS BUT WHEN ITS ABOUT OTHER GIRLS THEY PONDER ON ECONOMICS AND BUSINESS 

December 24, 2015

"rarest of rare crime "

Till the time rape is declared as "rarest of rare crime " no change will come . its not about culture and its not about clothes and also not about west effect its only a tool to prove that woman should be punished with rape it they dont do what "she is expected to do " now what is she expected to do , indian man and also else where think she is expected to be available always for the lust of man and any woman who does not confer to this should be "raped " sometimes physically and sometime "verbally " . STOP jokes on woman , STOP making woman a object . Be a role model for others and system will change 

December 19, 2015

तब चलेगये और बोले क्रेन ले कर हम बूथ हटा रहे हैं और अब बूथ हट गया।

दिवाली के आस पास दिल्ली ट्रैफिक पोलिस ने अपना बूथ हमारे फ्लैट के सामने फुट पाथ पर खड़ा खड़ा कर दिया। वहां बैठे कांस्टेबल से कहा तो बोले इस से आप को क्या फरक पड़ेगा। ये कहने पर की आप जब चालान करते हैं तो लोग यहां मजमा लगाते हैं और अंदर तक आवाजे आती हैं। इसके अलावा फुट पाथ पर आप कैसे बूथ बना सकते हैं।
कोई जवाब नहीं मिला हां बूथ हटा भी नहीं। और ये कहा गया मैडम अब आप के यहां चोरी नहीं हो सकती। मैने कहा आप ट्रैफिक पोलिस में हो अंदर का कुछ भी आप के अंडर में नहीं आता तो चले गए।
आर डब्लू ऐ से कहा तो बोले मैडम ये सरकारी लोग हैं हम क्या कर सकते हैं।
उसके बाद मैने ट्विटर पर { Shivam Misra शिवम मिश्रा थैंक यू ट्विटर सिखाने के लिए } दिल्ली ट्रैफिक पोलिस को कंप्लेंट की फोटो के साथ जवाब आया कंप्लेंट आगे पास कर दी गयी।
दूसरे दिन , तीसरे दिन पीएमओ के ट्विटर अकाउंट के साथ कंप्लेंट की तो एक फाइल संख्या दे दी गयी। बूथ वहीँ का वहीं , उसके साथ ५ -५ बाइक भी खड़ी होने लगी।
फिर LG की लिसनिंग पोस्ट पर कंप्लेंट की फोटो के साथ , फिर ईमेल आयी मेल दिल्ली पोलिस forward की गयी हैं
बूथ वहीँ का वही
तीन दिन बाद फिर ईमेल किया
तीन बाद फिर पी एम ओ की ऑफिसियल कंप्लेंट साइट पर कम्प्लेंट की
एक दिन बाद जवाब आया आप की कंप्लेंट फॉरवर्ड कर दी हैं
मैंने जवाब में लिखा की हर जगह से केवल फॉरवर्ड की जा रही हैं कोई हैं जो इस पर कार्यवाही करेगा या डिजिटल इंडिया बस एक शगूफा हैं
फिर एक नंबर दिया उस पर फ़ोन किया तो अधिकारी के पी ऐ जी बोले साहब मीटिंग में हैं आप नंबर दे दो मोबाइल।
मैने कहा नहीं मे अपना नंबर नहीं दूंगी आप अधिकारी का नंबर दो बोले क्यों नंबर देने में क्या हैं ?
मैने कहा आप किसी भी लेडी / महिला से उसका मोबाइल नंबर नहीं मांग सकते क्युकी इस से वो unsafe होती हैं और ये कानून कहता हैं। फिर जा कर अधिकारी का नंबर मिला।
बहुत अच्छी तरह बात की अपना ईमेल आईईडी दिया सारी फोटो मंगवाई।
आज १ महीने बाद २ ट्रैफिक पोलिस वाले आये की आप ने कंप्लेंट की थी आप को तकलीफ नहीं होगी बूथ लगा रहने दे कुछ दिन बाद जगह देख कर हटा लगे। हम जानते हैं आप वकील हैं। मैने कहा भाई ना तो मै वकील हूँ , ना मेरे पीछे कोई आदमी खड़ा हैं , ना मेरा किसी नेता से कोई लेना देना हैं , मेरे साथ तो एसोसिएशन भी नहीं हैं। एक लॉ अबाइडिंग सिटीजन हूँ और जो संभव होगा इस बूथ को हटवाने के लिये करुँगी।
तब चलेगये और बोले क्रेन ले कर हम बूथ हटा रहे हैं और अब बूथ हट गया।

September 16, 2015

उस वृद्ध व्यक्ति ने किया अपने को सम्मान देने वाले व्यक्ति का सम्मान .

दो दिन से एक फोटो को सब शेयर   कर रहे हैं जिस मे एक वृद्ध व्यक्ति अखिलेश यादव के पैर छू रहा हैं।  उस व्यक्ति को साहित्यकार होने का कोई पुरूस्कार मिला हैं।  

हिंदी में पुरूस्कार की परम्परा बहुत पुरानी हैं जैसे हमारी संस्कृति मे पैर छूने की।  
अगर किसी को किसी के प्रति कोई ऐसी भावना हैं और उसने पैर छू लिये तो इसमे इतना बाय बावेला क्यों ? 
किसी को सारी जिंदगी कुछ नहीं दिया गया और मरने से पहले उसके काम को सराहना मिली और साथ साथ साथ पुरूस्कार भी और उसने अपने चीफ मिनिस्टर के चरण स्पर्श कर लिये तो क्या आफत आगयी ? 
बुरा तो तब होता अगर अखिलेश के हाथ उनको उठाने के लिये तत्पर ना होते।  

विनम्रता पुरानी पीढ़ी की ताकत थी वो अपने साथ हुए अन्याय के खिलाफ आवाज नहीं उठाते थे लेकिन अपनी सराहना होते ही वो भावनात्मक रूप से किसी के भी पैर छू सकते थे. 

हिंदी ब्लॉग जगत में तो एक पुरूस्कार की घोषणा होते हैं उसके चित्र लिंक और जिसने पुरूस्कार दिया उसकी तारीफ़ से भरे पुलिँदै ना जा ने कितनो ने डाले हैं।  वो सब इस पैर छूने से कहीं ज्यादा भयानक चाटुकारिता थी।  
 आज भी फेस बुक पर गौरव सम्मान के लिंक दिख रहे हैं क्या हैं ये सब वही जो उस वृद्ध व्यक्ति ने किया अपने को सम्मान देने वाले व्यक्ति का सम्मान . 

September 10, 2015

हिंदी को प्यार इसलिये ना करे की वो आप को पॉपुलर कर सकती हैं क्युकी ये सेल्फिशनेस हुई।

हिंदी सम्मलेन हो रहा हैं फेसबुक पर और ब्लॉग पर हिंदी में लिखने वाले परेशान , उन्हे नहीं न्योता गया।  


अरे क्या आप ने  ब्लॉग और फेसबुक पर हिंदी में इसलिये लिखना प्रारंभ किया था की आप हिंदी के स्थापित लेखक और कवि या व्यंगकार कहलाये ? 

जो इतने व्यथित दिख रहे हैं उन सब को सोचना चाहिये की क्या उनके पास हिंदी की कोई प्रमाणित डिग्री हैं जैसे बी ऐ , ऍम ऐ , ऍम फिल , पी एच डी।  अगर हैं तो क्या आप उन संस्थानों से जुड़े हैं जहां साहित्यकार , हिंदी के लेखक , कॉलेज प्रवक्ता इत्यादि जाते हैं ?

लीजिये आप कहेंगे वहाँ सब बेकार की बाते होती हैं , बहुत पॉलिटिक्स हैं और हिंदी को प्यार करने उसमे लिखने के लिये इस सब की क्या जरुरत। 

सही आप हिंदी को प्यार करते हैं , उसमे लिखते हैं लिखिये खुश होइए और साहित्यकार , बुद्धीजीवियों की जुत्तम  पैजार से दूर रहिये।  

और मन में ये भरम तो कभी ना पालिये की आप के हिंदी में लिखने से हिंदी का इतना विस्तार  हुआ हैं नेट पर।  

हिंदी अपने आप में एक सम्पूर्ण भाषा हैं जिसको विस्तार की जरुरत ही नहीं हैं।  आप उसे प्यार करिये और उसके साथ साथ ये भी ध्यान रखिये की कोई भी भाषा हो नेट पर उसका विस्तार केवल और केवल इंग्लिश के कारण हुआ हैं।  

सारे प्रारंभिक टूल्स इंग्लिश में थे जिनकी जानकारी के कारण आलोक , मैथिलि , सिरिल और रवि इत्यादि ने हिंदी में नेट पर लिखना शुरू किया।  बाकी सब धीरे धीरे आते गए , कारवाँ बनता गया। 



हिंदी को प्यार इसलिये ना करे की वो आप को पॉपुलर कर  सकती हैं क्युकी ये सेल्फिशनेस हुई।  

September 04, 2015

कौन किसके बारे में कितना सोचता हैं इसकी इकोनॉमिक्स बहुत काम्प्लेक्स हैं

आज कल तमाम रिफ्यूजी समस्या चर्चा में हैं।  कुछ दिन पहले रवांडा रिफ्यूजी चर्चा मे थे आज कल सीरिया के हैं।  

लोग यूरोप पर थूक रहे हैं क्युकी उन्होने इनलोगो को शरण नहीं दी।  

हमलोगो के आस पास कितने हमारे अपने आर्थिक रूप से कमजोर रिश्तेदार परिवार हैं क्या हम सब उनको आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण अपने घर में ले आते हैं ?

क्या हम सब अपनी आर्थिक क्षमता का आंकलन नहीं करते हैं ?

कितने बांग्ला देशी कितने साल तक हमारे देश में रहे और आज भी हैं क्या उस से देश की इकॉनमी पर कोई असर नहीं पड़ा ? 

यूरोप मे खुद बहुत से ऐसे देश हैं जो इस समय रिसेशन का शिकार हैं तो अगर यूरोप नहीं चाहता की बाहर के लोग आकर उनकी इकॉनमी पर और बोझ डाले तो इसमे क्या गलत हैं ? 

कभी कभी सोचो तो लगता हैं जो लोग इललीगल तरीके   से जीवन यापन करते हैं उन्हे ही दूसरो  से सबसे ज्यादा चाहिये होता हैं 

आज कल जो  स्त्री मेरे ऑफिस में झाड़ू पोछा करती हैं वो एक महिने पहले दिल्ली आयी हैं , इस काम को वो बेहद बेमन से करती हैं।  
कल उससे बात की तो पता लगा गाँव में एक जमीन ली हैं कर्जा उठाया हैं १ लाख का चुकाना हैं।  

मैने कहा इसका मतलब हैं की कम  से कम २० हज़ार रूपए महीने की कमाई हो तो १० हज़ार गाँव भेज कर तुम बाकी दस हज़ार में खुद पति और ३ बच्चो के साथ यहां गुजारा कर सकती हो।  कहने लगी इतना तो नहीं हो सकता।  मुश्किल से १०००० हो पाता हैं जिसमे ३ हज़ार  एक दस साल का उसका लड़का कमाता हैं।  रोज का ४ समय का पूरा भोजन भी नहीं सही मिलता। 

गाँव में ससुर का १० कमरो का मकान हैं ३ बेटो के ३ ३ कमरे।  ३ परिवार साथ रह रहे थे।  दिन में आराम था किसी के घर नहीं जाना होता था।  

यहां शहर के लोग बहुत काम लेते हैं पैसा कम देते हैं। 

अब शहर के लोग कैसे अपना जीवन यापन करते हैं , कैसे अपने बच्चो की ३००० - ८००० रूपए महीने की स्कूल फीस देते हैं इस सब से उनको क्या।  

उनके  बारे में कोई नहीं सोचता।  

कौन किसके बारे में कितना सोचता हैं इसकी इकोनॉमिक्स बहुत काम्प्लेक्स हैं

May 07, 2015

कानून को इम्पार्शिअल बनाना जरुरी हैं

अमीरो के लिये कानून ,गरीबो के लिये कानून ,इतना फरक क्यों हैं।  सलमान खान ने शराब पीकर गाडी चलाई ,गाड़ी पर काबू नहीं रहा , गाड़ी एक फुटपाथ  पर चढ़ गयी , फुटपाथ पर कुछ लोग सो रहे थे , कार के नीचे आने से उनकी जान चली गयी।  बहुत अफ़सोस हुआ था ये सब जान कर।
१३ साल केस चला फैसला में सलमान को ५ साल की सजा हुई , सही हुआ।

लेकिन
क्या सलमान का जुर्म क्या हैं ये नहीं समझ आया जो पहले समझ आ रहा था

क्या सलमान का जुर्म ये हैं की उनके पास गाड़ी चलाने का लाइसेंस नहीं था
अगर हाँ तो कानून में इसके लिये क्या ५ साल की सजा हैं ? क्या जितने लोग बिना लाइसेंस के गाड़ी चलाते हैं उनको ये सजा दी जाती हैं 

क्या सलमान का जुर्म ये हैं की उन्होंने शराब पीकर गाड़ी चलायी ?
अगर हाँ तो कानून में इसके लिये क्या ५ साल की सजा हैं ? क्या जितने लोग शराब  पीकर गाड़ी चलाते हैं उनको ये सजा दी जाती हैं

क्या सलमान का जुर्म ये हैं उनकी गाड़ी फुटपाथ पर चढ़ गयी ?
अगर हाँ तो कानून में इसके लिये क्या ५ साल की सजा हैं ? क्या  लोग गाड़ी पर बॅलेन्स खराब होने के बाद उसको सबसे पहले कहीं ना कहीं ऐसी जगह टकराते नहीं हैं जहां गाड़ी की स्पीड कम की जा सके या रोका जा सके ? क्या उन सब को ५ साल की सजा दी जाती हैं



सलमान की गाड़ी के नीचे कुछ लोग आगये जो वहाँ एक बैकरी के सामने सो रहे थे
क्या ये सही था , क्या फुटपाथ पर सोना कानूनन  सही हैं ?
लॉजिक वो गरीब थे
क्या किसी के इकनोमिक स्टेटस के लिये सलमान दोषी हैं ?
अगर वो बैकरी में काम करने वाले लोग थे तो क्या बैकरी के मालिक ने उनको वहाँ सोने की परमिशन दी थी ताकि उनकी बैकरी सेफ रहे ?


मुंबई नगर पालिका के कर्मचारी के लिये क्या कानून हैं ?  क्या उनकी ड्यूटी नहीं थी की रात में लोगो को फुटपाथ पर सोने से रोके

दिल्ली और तमाम अन्य शहरों मे सुबह शाम रात फुटपाथ पर दुकाने लगी रहती हैं , लोगो की झुगिया बन जाती हैं , दिन में लोहार वहाँ बैठ कर लोहा पीट पीट कर औजार बनाते हैं रात को वही खाना बनता हैं और कोई कानून नहीं हैं उनको हटाने के लिये क्युकी वो गरीब हैं

हर इस तबके  के गरीब के घर की मासिक आय इतनी है वो आराम से १५०० - २००० रुपया का कमरा { आज का रेट } मासिक किराय पर ले सकता हैं , नहीं लेता क्युकी जो काम फ्री में हो सकता हैं तो क्यों किया जाए.

आज जो सलमान के लिये फैसला आया हैं किसी ना किसी दिन हम सब के किसी नजदीकी के लिये भी आएगा इस लिये नहीं की वो दोषी हैं बल्कि इस लिये क्युकी उसका इकोनोमिक स्टैण्डर्ड ज्यादा हैं।

जो उस समय १. ५ लाख का कम्पेन्सेशन पा चुके हैं वो बड़े निराश हैं इस फैसले से।  उनके हिसाब से अगर सजा सलमान को होती हैं और उनको अब कोई कम्पेन्सेशन नहीं दिया जाता हैं तो उन्हे क्या फायदा हुआ ?

अब केस सलमान को सजा दिलवाने के लिया था या घायल को कम्पेन्सेशन ?

सलमान के बिगड़े हुए रईस हैं और उनको सजा देना जरुरी हैं पर सजा उन सब भी मिले जो राइस / अमीर नहीं हैं लेकिन कानून का उलंघन तो उन्होंने भी किया हैं।

कानून को इम्पार्शिअल बनाना जरुरी हैं




April 16, 2015

कानून को बदलने की प्रक्रिया होती हैं जो केवल संवेदना आधारित नहीं हो सकती हैं

अर्णव गोस्वामी जैसे लोग जो टाइम्स नाउ पर # लगा कर बेफिजूल मुद्दो को उठाते हैं वो पत्रकार हैं ही नहीं।  कभी भी उनका चेंनेल देखो केवल उनका ही पक्ष सुनाई देता हैं और दूसरा कोई अपना पक्ष नहीं रख पता हैं ब्रेकिंग न्यूज़ के नाम पर हर बात को ले कर हल्ला मचाना और अपने को बेस्ट न्यूज़ चैनल बताना उनकी जरुरत हैं ताकि उनके कारोबार के लिये उनको विज्ञापन मिल सके। 
भारतीये वैसे भी हमेशा से सिम्पथी सीकर और गिवर रहे हैं इस लिये बिना कानून जाने हर मुद्दे पर ढेरो पोस्ट फेसबुक और अन्य सोशल मीडिया पर रोज दिखती हैं।
किसी भी समाचार को पोस्ट करने से पहले और किसी कानून की धज्जिया उड़ाने से पहले एक बार नेट पर उस से जुड़ी और जानकारी अगर हम देख ले तो बेहतर होगा।
कानून को बदलने की प्रक्रिया होती हैं जो केवल संवेदना आधारित नहीं हो सकती हैं हाँ संवेदना उसका एक आधार हो सकती हैं

January 23, 2015

बदलाव तभी संभव हैं जब आप बदलाव को समझे और स्वीकार भी करे

ना जाने क्यों लोग आज कल किसी व्यक्ति के पार्टी बदलने से उसके पुराने ब्यान पर संवाद कर रहे है। 
क्या एक बदलाव नहीं दिख रहा हैं हमे अपने देश की राज नैतिक व्यवस्था मे। 
अब प्रोफेशनल लोग हैं  जिनके लिये पार्टी महज एक नौकरी की तरह हैं जहां अगर वो परफॉर्म नहीं कर पाते हैं तो उसको बदल कर दूसरी पार्टी / नौकरी को ज्वाइन कर लेते हैं और अपनी क्षमता का पुनः आकलन करवाते है
फिर वो चाहे किरण बेदी हो या अरविन्द केजरी वाल।  दोनों को समझ आगया की दोनों की एम्बिशन दिल्ली का मुख्य मंत्री बनना हैं।  एक पार्टी मे रह कर दोनों नहीं बन सकते तो इस लिये किरण बेदी ने आप पार्टी ज्वाइन नहीं की। 
इतनी सिंपल बात हम क्यों नहीं समझ पाते क्युकी हम सब कहीं ना कहीं परिवार वाद को बहुत महत्व देते हैं।  हमारे लिये वो सबसे अच्छा होता हैं जो बंधी बंधाई लीक पर चलता हैं।  जहां कोई भी नया कुछ करता हैं जरुरी होता हैं की उस को ठोंक पीट कर व्यवस्थित हम कर दे। 
बदलाव तभी संभव हैं जब आप बदलाव को समझे और स्वीकार भी करे

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